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OPINION : आस्था और संस्था पर लांछन, कब तक गुमराह करेंगे लालू – तेजस्वी

Agency:News18India

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लालू और तेजस्वी यादव विक्टिम पॉलिटिक्स का सहारा लेकर आस्था और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं. लालू ने कुंभ पर टिप्पणी की और तेजस्वी ने चुनाव आयोग को कैंसर बताया.

OPINION : आस्था और संस्था पर लांछन, कब तक गुमराह करेंगे लालू - तेजस्वी

लालू और तेजस्वी रणनीति के तहत अनर्गल बयान दे रहे हैं

हाइलाइट्स

  • लालू ने कुंभ पर टिप्पणी की, फालतू बताया.
  • तेजस्वी ने चुनाव आयोग को कैंसर कहा.
  • विक्टिम पॉलिटिक्स से वोटरों को लुभाने की कोशिश.

पटना : कुंभ का कोई मतलब है, फालतू है कुंभ. ये कहना है भारत रत्न की चाह रखने वाले लालू प्रसाद यादव यादव का. चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं और बेल पर बाहर हैं. खुद चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन मोदी को हराने की कसम खाते हैं. उधर बेटे तेजस्वी यादव का मानना है कि चुनाव आयोग कैंसर है. लोकतंत्र के लिए खतरा है. तेजस्वी को उम्मीद है कि केंद्र में उनकी सरकार बनेगी और वो ईवीएम हटा देंगे. ये सुनकर लालू जरूर दुखी होंगे. सोच रहे होंगे कब सरकार बनेगी, कब ईवीएम हटेगा और कब मोदी को हराने का सपना पूरा होगा. लेकिन पिता-पुत्र दोनों राजनीति खेलने के माहिर हो चुके हैं. इसलिए लालू ने अगर कुंभ के बहाने पर आस्था पर चोट किया तो सोच समझ कर किया. उधर बेटे तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को निशाना बनाया तो बिल्कुल सोच समझ कर.

ये तो मनोज झा जैसे बुद्धिजीवी लेकिन नेतागीरी में कमजोर लोग आरजेडी में है जो डैमेज कंट्रोल में लग गए. नहीं, नहीं. समझिए. दिल्ली में इतनी बड़ी रेल दुर्घटना हुई थी. उसके बाद लालू यादव के मन में पीड़ा थी. उनका मतलब कुंभ पर टीका टिप्पणी करना नहीं था. मनोज झा भूल गए कि सांप्रदायिकता के नाम पर धार्मिक आंदोलनों का विरोध लालू की राजनीति का कोर है. इसी ने उन्हें बिहार की राजनीति का धुरी बनाया. हर साल बाबरी मस्जिद ढहाने की बरसी पर लालू का वो भाषण वायरल होता है. 1990 का वो भाषण आपने भी देखा होगा. उधर हिंदू हृदय सम्राट लालकृष्ण आडवाणी राम रथ पर सवार होकर बिहार घुसने वाले थे. इधर लालू बेचैन. हम कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे – के नारे से जब पटना गूंज उठा और आडवाणी समस्तीपुर पहुंच गए तो सीएम लालू यादव ने तय कर लिया कि अब बहुत हुआ. 24 अक्टूबर की अहले सुबह आडवाणी अरेस्ट कर लिए गए. कुछ दिनों बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने केंद्र की वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. तो जो लालू यादव अपने आका की सरकार कुर्बान कर सकते हैं, वो अपनी राजनीतिक विरासत कैसे भूल सकते हैं.

अपने जोन में हैं लालू
अब ये भी सवाल उठ सकता है कि 1990 से 2025 तक सरयू और गंगा में काफी पानी बह चुका. फिर लालू अपनी राजनीति क्यों नहीं बदलेंगे? खासकर जब सत्ता से बाहर हैं और आडवाणी की पार्टी चुनाव दर चुनाव जीत रही है. मोदी का अभी तीसरा टर्म ही है. उधर बिहार में नीतीश के साथ बीजेपी 2005 से हर चुनाव जीत रही है. 2015 में दोनों साथ नहीं थे तो हारे थे. इसका जवाब भी लालू के बयान में है. उन्हें पता है कि सिर पर गठरी बांध बीसियों किलोमीटर पैदल चल कर संगम में आस्था की डुबकी लगाने वाली जनता उनके वोटर हैं. फिर भी विरोध. शायद लालू और तेजस्वी मायावती वाली गलती न करना चाहते हों. मायावती मुनवाद और ब्राह्मण व्यवस्था का विरोध करते करते ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा पर आ गईं और उसके बाद जीरो हो गईं. पिता-पुत्र को पता है कि अयोध्या में बिहार के कारसेवक भी मारे गए, दलित कारसेवक कामेश्वर चौपाल ने मंदिर में ईंट रखी लेकिन पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों ने उन्हें वोट देना जारी रखा. मोदी लहर में ओबीसी ही नहीं सभी तबकों में एकमुश्त वोट का गणित गड़बड़ हुआ है लेकिन पिछले चुनाव में हुई जबरदस्त टक्कर से तेजस्वी उत्साहित हैं. इसलिए कुंभ में भगदड़ या नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ इन्हें एक मौका देती है.

वैसे सत्तासीनों की गारंटी वोटरों को लुभाती रही है लेकिन बिहार कब किस बात पर नया गुल खिला दे, कहना मुश्किल है. इसलिए दिल्ली के शीशमहल की तरह लालू और बेटों के पुराने घोटाले कुदेरने के साथ-साथ नई रणनीति पर भी काम करना होगा

नई तरह की विक्टिम पॉलिटिक्स
व्यवस्था पर हमला करते-करते ये दिखाते हैं कि भगदड़ के शिकार भी दबे-कुचले होते हैं. उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है. ये विक्टिम पॉलिटिक्स खेलने का ही हिस्सा है. बिहार चुनाव पास है. जाति व्यवस्था में श्रेष्ठता की खोज फिर होगी. इससे वोटों की गोलबंदी में मदद जो मिलती है. रणनीति के तहत तेजस्वी नौकरी के नाम पर ए टू जेड की पॉलिटिक्स खेलेंगे और पापा अपने जोन में रहेंगे. खुद को कर्पूरी ठाकुर का चेला कहने वाले लालू आस्था के साथ खिलवाड़ भी राजनीतिक संदेश देने के लिए करते रहे हैं. कभी कहते हैं शिव जी से उनकी बात होती है सपने में. एक दिन भगवान बोले कि मांस-मछली छोड़ दो तो छोड़ दिए. और 13 साल बाद सावन में राहुल को मटन बनाना सिखाते हुए दिखते हैं और खाते भी हैं.

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लालू यादव सावन में मटन खाकर आलोचना झेल चुके हैं

वैसे संस्था का विरोध सिर्फ तेजस्वी का शगल नहीं है. पापा लालू तो अपने राज में इसका खूब इस्तेमाल करते आए. यहां तक कि 1997 में जब चारा घोटाले में अरेस्ट होने की बारी आई तो कानून को ही चुनौती दे डाली. सीबीआई के जॉइंट डायरेक्टर एके विश्वास को दानापुर कैंटनमेंट में अर्जी देनी पड़ी कि सेना भेज दीजिए, हाई कोर्ट का ऑर्डर है , इन्हें अरेस्ट करना है.

तो संस्था और आस्था पर सुनियोजित हमले जारी रहने वाले हैं. नीतीश कुमार से ज्यादा बीजेपी को ही प्रतिकार करना है. वैसे सत्तासीनों की गारंटी वोटरों को लुभाती रही है लेकिन बिहार कब किस बात पर नया गुल खिला दे, कहना मुश्किल है. इसलिए दिल्ली के शीशमहल की तरह लालू और बेटों के पुराने घोटाले कुदेरने के साथ-साथ नई रणनीति पर भी काम करना होगा.

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