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GB सिंड्रोम… अब ये कौन सी बीमारी आ गई, पुणे में धड़ाधड़ लोग हो रहे बीमार

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GB Syndrome: पुणे में एक बड़ी बीमारी जीबी सिंड्रोम के कम से कम 22 मरीजों का इलाज किया जा रहा है. ये एक पुरानी बीमारी है, जिसमें मरीज के पैरों की मांसपेशियां कमजोर होने लगती हैं. इसमें सांस लेने में भी तकलीफ हो …और पढ़ें

GB सिंड्रोम... अब ये कौन सी बीमारी आ गई, पुणे में धड़ाधड़ लोग हो रहे बीमार

पुणे में GB सिंड्रोम के 22 संदिग्ध मरीज मिले हैं. (Image:News18)

पुणे. जहां दुनिया भर में एचएमपीवी वायरस को लेकर चर्चा हो रही है, वहीं पुणे में जीबी सिंड्रोम के 22 संदिग्ध मरीज पाए गए हैं. क्या यह वास्तव में सिंड्रोम है? इससे क्या खतरा है? पुणे के इमरजेंसी मेडिकल एक्सपर्ट डॉक्टर पद्मनाभ केसकर ने इस बारे में पूरी जानकारी दी है. पुणे में गुइलेन-बैरी सिंड्रोम (जीबीएस) नामक दुर्लभ बीमारी के 22 संदिग्ध मरीजों का पता चला है. ये सभी मरीज दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल, नेवले अस्पताल और पूना अस्पताल में भर्ती हैं. ये सभी मरीज मुख्य रूप से सिंहगढ़ रोड, धायरी आदि इलाके के हैं. इन रोगियों में शुरू में गंभीर दस्त, बुखार, शरीर में दर्द जैसे लक्षण विकसित हुए और बाद में पैरों में ताकत की कमी जैसे लक्षण विकसित हुए.

डॉक्टर ने क्या कहा?
मांसपेशियों की शक्ति में कम वक्त के लिए नुकसान और सांस संबंधी परेशानी के कारण कुछ रोगियों को कृत्रिम सांस के लिए आईसीयू में भर्ती कराया गया था. आईसीएमआर-एनआईवी में इनके नमूनों की जांच जारी है. पुणे नगर निगम ने प्रभावित इलाके में एक टीम भेजी है. इस संबंध में हमें जल्द ही अधिक जानकारी मिलेगी. लेकिन तब तक लोगों के मन में जीबी सिंड्रोम को लेकर भारी भ्रम है इसलिए लोगों को जागरूक करने के लिए यह पोस्ट लिखी जा रही है.

क्या है ये गुइलेन-बैरी सिंड्रोम (Guillain-Barre Syndrome) बीमारी?
इस बीमारी या सिंड्रोम की खोज 1916 में फ्रांसीसी न्यूरोलॉजिस्ट जॉर्जेस गुइलेन और जीन एलेक्जेंडर बर्रे ने की थी, इसलिए इस सिंड्रोम का नाम गुइलेन-बैरे सिंड्रोम रखा गया. तो यह कोई नई बीमारी नहीं है, इस बीमारी के मामले हमारे भारत में भी पाए जाते हैं. हमने अपने अस्पतालों में भी यदा-कदा इस रोग के मरीज देखे होंगे. लेकिन जब किसी बीमारी के मामले अचानक से काफी बढ़ने लगें तो यह चिंता का विषय जरूर है. इस बीमारी में व्यक्ति की अपनी ही प्रतिरक्षा प्रणाली उसके तंत्रिका तंत्र पर हमला करती है. और इससे शरीर की नसों और मांसपेशियों की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है यानी यह एक तरह से ऑटो इम्यून बीमारी है. इस बात का अभी भी कोई निश्चित जवाब नहीं है कि किसी को अचानक यह बीमारी क्यों हो जाती है. लेकिन देखा गया है कि यह बीमारी अक्सर वायरल या बैक्टीरियल संक्रमण के बाद, कभी-कभी टीकाकरण के बाद या किसी बड़ी सर्जरी के बाद होती है. ऐसे समय में शरीर की अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यून सिस्टम) हाइपर रिएक्ट करती है.

कभी-कभी कुछ रोगियों में इसका जल्द पता नहीं चल पाता है. पैरों में कमजोरी महसूस होने या संवेदना खत्म होने के कारण मरीज डॉक्टर के पास आता है. कभी-कभी यह अनुमान लगाना तुरंत संभव नहीं होता है कि रोगी को यह बीमारी होगी और अन्य कारणों पर विचार किया जाता है. लेकिन समय के साथ पैरों में संवेदना की कमी और ताकत का कम होना, पैरों में खड़े होने और चलने में जान की कमी होना जैसे लक्षण दिखने लगते हैं तो इस बीमारी की आशंका होती है. इन रोगियों को शुरू में अज्ञात बुखार होता है और बाद में तंत्रिका तंत्र से संबंधित कमजोरी और अन्य लक्षण विकसित होते हैं, कुछ रोगियों में सांस की मांसपेशियां भी कमजोर हो जाती हैं और रोगी स्वयं सांस लेने में असमर्थ हो जाता है.

गुइलेन-बैरी सिंड्रोम के लक्षण क्या हैं?
इस रोग की शुरुआत में रोगी को केवल हाथ-पैरों में झुनझुनी या सुन्नता और कुछ हद तक दर्द जैसे लक्षण दिखाई देते हैं. बाद के चरणों में, रोगी के हाथ या पैर की ताकत कम होने लगती है. विशिष्ट विशेषता यह है कि लक्षण दोनों तरफ समान हैं. इसका मतलब यह है कि सिर्फ एक पैर ही ताकत नहीं खोता है, बल्कि दोनों तरफ के लक्षण समान होते हैं. यह नहीं बताया जा सकता कि ये लक्षण कितनी जल्दी विकसित होंगे, एक रोगी में आधे दिन के भीतर लक्षण विकसित हो सकते हैं, जबकि दूसरे में दो हफ्ते लग सकते हैं. फिलहाल पुणे में जो मामले मिल रहे हैं, उनमें जीबी सिंड्रोम के लक्षण वायरल संक्रमण के बाद बहुत कम समय के भीतर सामने आए हैं.

मांसपेशियों की यह कमजोरी शरीर के ऊपरी हिस्से यानी गर्दन और चेहरे की मांसपेशियों तक भी जा सकती है. इसके कारण मरीज को निगलने में दिक्कत होती है, साथ ही आंखों की मांसपेशियां भी कमजोर हो जाती हैं, कई मरीजों में चेहरे की मांसपेशियों में कमजोरी के लक्षण भी देखे जाते हैं. कुछ रोगियों (8%) में लक्षण पैरों की मांसपेशियों (पैरापलेजिया या पैरापैरेसिस) तक सीमित होते हैं. एक बार जब यह मांसपेशियों की कमजोरी उच्च स्तर पर पहुंच जाती है, तो कुछ समय के लिए लक्षणों में ठहराव आ जाता है. और फिर मरीज़ों में सुधार होना शुरू हो जाता है. यह समय कितने समय तक चलेगा यह अनिश्चित है. यह दो दिन से लेकर छह महीने तक कहीं भी रह सकता है. इसलिए, इस बीमारी से मरीज कितने दिनों में ठीक हो जाएंगे, इसकी कोई सटीक गणना नहीं है, लेकिन औसतन एक हफ्ते के बाद मरीज़ों में सुधार दिखना शुरू हो जाता है.

सांस की मांसपेशियों की कमजोरी
इस बीमारी का सबसे खतरनाक लक्षण सांस की मांसपेशियों की कमजोरी है. लगभग एक चौथाई रोगियों में श्वसन संकट और श्वसन विफलता की जटिलताएँ देखी जाती हैं. ऐसे रोगियों को कृत्रिम सांस के लिए वेंटीलेटर की आवश्यकता हो सकती है. लगभग दो-तिहाई रोगियों में स्वायत्त तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित होता है. इसका हृदय गति और रक्तचाप पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. अब तक के समग्र लक्षणों से, हमने देखा होगा कि यह बीमारी कुछ रोगियों में गंभीर से लेकर जीवन के लिए खतरा तक हो सकती है. इस बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल में आईसीयू की आवश्यकता हो सकती है. लगभग दो-तिहाई रोगियों में स्वायत्त तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित होता है. इसका हृदय गति और रक्तचाप पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. अब तक के समग्र लक्षणों से, हमने देखा होगा कि यह बीमारी कुछ रोगियों में गंभीर से लेकर जीवन के लिए खतरा तक हो सकती है. इस बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल में आईसीयू की आवश्यकता हो सकती है.

हालांकि इस बीमारी से मृत्यु दर लगभग 7.5% है, लेकिन अधिकांश मरीज बिना किसी शारीरिक दोष के समय के साथ ठीक हो जाते हैं. मरीजों में ऐसे लक्षण दिखने पर उचित इतिहास लेना जरूरी है. गुइलेन-बैरी सिंड्रोम अक्सर सांस की नली के संक्रमण या जठरांत्र संबंधी मार्ग के संक्रमण के बाद गंभीर दस्त वाले रोगियों में देखा जाता है. टीकाकरण के बाद भी कम संख्या में रोगियों में गुइलेन-बैरी सिंड्रोम देखा गया है. स्वाइन फ्लू का टीका/इन्फ्लुएंजा टीका या कोविड टीका लेने के बाद इस बीमारी की बहुत कम संभावना का अनुमान लगाया गया है.

इस बीमारी का पता कैसे लगाया जा सकता है?
गुइलेन-बैरी सिंड्रोम के निदान के लिए किसी परीक्षण की जरूरत नहीं है, केवल लक्षण और रोगी का इतिहास ही रोग का अनुमान लगा सकता है. सीएसएफ द्रव परीक्षण या तंत्रिका चालन परीक्षण सहायक परीक्षण हैं. इसकी जांच एमआरआई से भी की जा सकती है.

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इलाज
चूंकि यह बीमारी ऑटो इम्यून है, इसलिए इसका कोई निश्चित दवा उपचार नहीं है. लेकिन शोध के बाद यह देखा गया है कि प्लास्मफेरेसिस या अंतःशिरा इम्युनोग्लोबुलिन दो उपचार विधियां हैं जो मुख्य रूप से इस बीमारी में इम्यूनोथेरेपी के रूप में उपयोग की जाती हैं. लेकिन इस बीमारी का कोई पुख्ता इलाज नहीं है. गुइलेन-बैरी सिंड्रोम के बारे में आम जनता अभी भी ज्यादा नहीं जानती है. उम्मीद है कि पुणे में अचानक आई इस मेडिकल इमरजेंसी पर जल्द ही काबू पा लिया जाएगा.

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