राजस्थान की अनोखी परंपरा! यहां जिंदा व्यक्ति की निकाली जाती है शवयात्रा

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Bhilwara Rajasthan Unique Funeral Procession: राजस्थान के भीलवाड़ा में होली के सात दिन बाद जिंदा मुर्दे की शव यात्रा निकाली जाती है. यह शव यात्रा शीतला सप्तमी के दिन चित्तौड़ वालों की हवेली के बाहर ढोल, नंगाड़े,…और पढ़ें

जिंदा मुर्दे की शव यात्रा
हाइलाइट्स
- भीलवाड़ा में 427 साल पुरानी परंपरा जारी.
- शीतला सप्तमी पर जिंदा व्यक्ति की शव यात्रा निकाली जाती है.
- यात्रा में महिलाएं भाग नहीं लेतीं, दूर से देखती हैं.
भीलवाड़ा. राजस्थान के भीलवाड़ा की एक ऐसी अनोखी परंपरा है, जिसका पिछले सवा 400 सालों से निर्वहन किया जा रहा है. इस परंपरा के तहत जीवित व्यक्ति को अर्थी पर लेटाया जाता है और फिर गाजे-बाजे के साथ रंग-गुलाल उडाते हुए पूरे शहर में उसकी शव यात्रा निकाली जाती है. उसके बाद एक निश्चित स्थान पर उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया जाता है.
मगर इससे पहले अर्थी पर लेटा युवक किसी तरह अर्थी से कूदकर भाग जाता है. वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में शीतला सप्तमी पर पिछले 427 सालों से यह परपंरा इला जी का डोलका यानी कि जिंदा मुर्दे की शव यात्रा की परंपरा निभाई जा रही है.
होली के सात दिन बाद निकलती है सवारी
होली के 7 दिन बाद यह सवारी निकाली जाती है. जिसकी शुरूआत शहर के चित्तौड़ वालों की हवेली से होती है. जहां पर एक युवक को अर्थी पर लेटा दिया जाता है और फिर ढोल-नंगाडों के साथ शव यात्रा शुरू होती है. शव यात्रा में अर्थी पर लेटा व्यक्ति कभी बैठ जाता है तो कभी उसका एक हाथ बाहर निकलता है. इस शव यात्रा में शामिल होने के लिए भीलवाड़ा एवं आस-पास के जिलों से भी लोग आते हैं और जमकर रंग-गुलाल उडाते हुए आगे बढते जाते है. इस दौरान यहां पर जमकर फब्तियाें का प्रयोग किया जाता है. जिसके कारण इस सवारी में महिलाओं का प्रवेश वर्जित रखा जाता है. यह सवारी रेलवे स्टेशन चौराहा, गोल प्यापऊ चौराहा, भीमगंज थाना होते हुए बड़ा मंदिर पहुंचती है. यहां पहुंचने पर अर्थी पर लेटा युवक नीचे कुदकर भाग जाता है और प्रतिक के तौर पर अर्थी का बड़ा मंदिर के पीछे दाह संस्कार कर दिया जाता है.
शीतला सप्तमी के दिन निकाली जाती है शव यात्रा
पदमश्री बहरूपिया कलाकार जानकीलाल भांड ने बताया कि शीतला सप्तमी के दिन गुलमंडी से लेकर बड़े मंदिर और धान मंडी तक सभी लोग मुर्दे की सवारी निकालते है. चित्तौड़ वालों की हवेली के बाहर से मुर्दें की सवारी ढोल, नंगाड़े, ऊंट घोड़ों के साथ सवारी निकाली जाती है. इस मुर्दें की सवारी में महिलाएं भाग नहीं लेती है और दूर से ही इसको देखती हैं. शहरवासी कैलाश जीनगर ने कहा कि शितला सप्तमी के अवसर पर कईं वर्षों से यह मुर्दें की सवारी निकाली जाती है. यह परम्परा राजा-महाराजाओं के वक्त से शुरू हुई थी जो आज तक निरंतर जारी है. मुर्दें की सवारी में चित्तौड़ वालों की हवेली से एक जीवित व्यक्ति को अर्थी पर लेटाया जाता है और फिर गाजे-बाजे के साथ शहर में रंग-गुलाल उड़ाते हुए हंसी-टटोली के साथ यह सवारी निकाली जाती है. जब यह सवारी बड़े मंदिर के पास पहुंचती है तो जीवित व्यक्ति अर्थी छोड़कर भाग जाता है और प्रतिकात्मक रूप में अर्थी का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है.
साल भर की बुराइयों को निकलते हैं बाहर
इस शव यात्रा के दौरान जो भी व्यक्ति इस में शामिल होता है, वह अपने अंदर छिपी बुराइयों और भड़ास को बाहर निकलता है और फिर नई शुरुआत करता है. हर साल निकलने वाली यह जिंदा मुर्दे की शव यात्रा में जिंदा मुर्दा कोई फिक्स आदमी नहीं होता है. हर साल आदमी बदलता रहता है. मुर्दे बनने का काम कठिन है, उसे काफी कुछ सहना पड़ता है. यात्रा के दौरान मुर्दा भी दम साधे पड़ा रहता है. अंतिम यात्रा के दौरान पुतला भी साथ ले जाया जाता है. मुर्दा व्यक्ति कभी भी तंग होकर अर्थी से उठकर भाग जाता है. उसके भागने के बाद पुतले को अर्थी पर लेटा दिया जाता है और उसके बाद अंतिम संस्कार किया जाता है.
