सरकार जो बनाए CM बनेंगे नीतीशे कुमार… क्या इस बार टूट जाएगा यह मिथक?

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बिहार में एक दलीय शासन की परंपरा दो दशक पहले टूटी तो अब तक वैसी ही है. गठबंधन की सरकारें बनती रही हैं. चुनाव होते हैं, पर किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलता. आश्चर्य की बात यह कि जिस किसी गठबंधन की सरकार बने, सीएम …और पढ़ें

हाल के दिनों में नीतीश कुमार की लोकप्रियती में कमी आई है.
हाइलाइट्स
- बिहार में नीतीश कुमार का प्रभाव घटता जा रहा है.
- तेजस्वी यादव की लोकप्रियता बढ़ रही है.
- भाजपा के पास तेजस्वी के मुकाबले कोई चेहरा नहीं.
बिहार में पिछले दो दशक से यह धारणा रही है कि सरकार कोई बनाए, लेकिन सीएम नीतीश कुमार ही बनेंगे. दूसरी धारणा यह कि कोई भी दल अपने दम पर सत्ता नहीं हासिल कर सकता. वर्ष 1990 से 2005 के बीच रहे लालू-राबड़ी राज के अवसान के साथ ही किसी एक दल की सरकार की अवधारणा बिहार से विलुप्त हो गई थी. 2005 में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने सरकार तो बना ली, लेकिन अकेले बहुमत से दूर रही. 2010 में जेडीयू पिछले मुकाबले काफी मजबूत हुआ, लेकिन सीटें 115 पर अटक गईं. यानी बहुमत के जादुई आंकड़े 122 से सात सीटें कम. भाजपा के सहयोग से नीतीश कुमार दोनों बार सीएम बने. नीतीश ने 2015 में भाजपा को छोड़ आरजेडी के साथ चुनाव लड़ा. पर, इस बार भी सीटें जेडीयू को उतनी नहीं मिलीं, जिससे नीतीश कुमार अपने दम पर सीएम बन जाएं. जेडीयू को 2010 के मुकाबले 44 सीटें कम यानी 71 सीटें मिलीं. 2020 जेडीयू के लिए सर्वाधिक खराब साल रहा, जब उसके सिर्फ 43 विधायक ही चुन कर सदन पहुंचे. फिर भी सीएम की कुर्सी पर नीतीश कुमार ही बैठे.
दो दशक से वन पार्टी गवर्नमेंट नहीं
बिहार में 20 साल में भले मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बदला, लेकिन कोई दल अकेले अपने बूते इस दौरान सरकार बनाने की स्थिति में भी नहीं रहा. नीतीश कुमार के जेडीयू को कभी उतनी सीटें मिली ही नहीं, जो अपने दम पर सरकार बनाने का दावा कर सके. कभी भाजपा से युगलबंदी कर नीतीश सीएम बने तो कभी आरजेडी के साथ गलबहियां डाल कर. आरजेडी और भाजपा को इस दौरान सबसे बड़ी पार्टी बनने का मौका मिला भी, लेकिन अपना सीएम बनाने की हिम्मत नीतीश के आगे किसी की नहीं हुई. विधानसभा का अंकगणित नीतीश कुमार के खिलाफ होते हुए भी उनके पक्ष में इसलिए मजबूत बनता रहा कि सत्ता की चाबी उनके पास ही होती. वे जिसे सत्ता सुख देना चाहते, उससे अपनी कुर्सी की गारंटी लेकर पाला बदलते रहे. उनका यही आचरण आज उनकी सबसे बड़ी कमजोरी माना जा रहा है. वर्ष 2015 में 80 सीटों के साथ आरजेडी सबसे बड़ा दल था तो 2020 में भाजपा आरंभ में दूसरी बड़ी पार्टी होकर एनडीए में सीएम की सबसे बड़ी दावेदार थी. दोनों मौके भी नीतीश ने अपने नाम कर लिए. अकेले सरकार बनाने की संख्या ही किसी के पास नहीं थी.
घटता जा रहा है नीतीश का प्रभाव
वर्ष 2005 से नीतीश कुमार ने बिहार की कमान संभाली है. उस साल दो बार विधानसभा के चुनाव हुए थे. पहला चुनाव फरवरी में और दूसरा अक्टूबर में हुआ. अक्टूबर में हुए चुनाव में आरजेडी ने 175 सीटों पर लड़ कर 55 सीटें जीतीं और जेडीयू ने 139 पर लड़ कर 88 सीटें. अक्टूबर 2005 में विधानसभा के चुनाव में नीतीश कुमार के जेडीयू को 22.4 प्रतिशत वोट मिले थे. 2015 में 17.3 प्रतिशत और 2020 में 15.39 प्रतिशत वोट मिले. जेडीयू के लिए 2010 का चुनाव अपवाद रहा, जब उसे 22.6 प्रतिशत वोट मिले थे. यानी जेडीयू को औसतन हर विधानसभा चुनाव में औसतन 19.42 प्रतिशत वोट मिले. उसकी सहयोगी भाजपा का वोट शेयर जरूर इस दौरान बढ़ता रहा. नीतीश कुमार जेडीयू के आरंभिक वोट शेयर को बढ़ा नहीं पाए तो बरकरार भी नहीं रख पाए. यानी नीतीश की लोकप्रियता में ह्रास होता रहा है.
तेजस्वी का दिखने लगा है उभार
राजनीति में लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव का प्रवेश महज 10 साल पहले 2015 में हुआ. लालू ने नीतीश की देखरेख में राजनीति का ककहरा सीखने का मौका अपने दोनों बेटों- तेज प्रताप और तेजस्वी यादव को दिया. दोनों में तेजस्वी को उभार का मौका. इसलिए मिला कि वे नीतीश के साथ पहली ही बार में डेप्युटी सीएम बन गए. लालू यादव की राजनीतिक विरासत और नीतीश कुमार के प्रशिक्षण में तेजस्वी सियासी फलक पर इस कदर उभरे कि अपने गुरु के लिए ही वे अब भस्मासुर साबित होने लगे हैं. नीतीश ने 2017 में जब महागठबंधन से नाता तोड़ लिया तो तेजस्वी ने अपने दम पर महागठबंधन का स्वरूप बनाया. कड़े मुकाबले में एनडीए से तेजस्वी का महागठबंधन महज 15 सीटों से चूक गया. महागठबंधन के 110 विधायक चुने गए, जबकि एनडीए के 125 विधायक. बाद में आरजेडी ने चार और विधायकों का बंदोबस्त कर लिया. असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के पांच में से चार विधायकों को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने अपने साथ जोड़ लिया. जेडीयू की बुरी गत होने के बावजूद एनडीए ने नीतीश कुमार को ही सीएम बनाया. नीतीश कुमार 2022 में फिर महागठबंधन के शरणागत हुए और 17 महीने बाद ही 2024 में एनडीए के साथ लौट आए.
नीतीश पर तेजस्वी पड़ रहे भारी
तेजस्वी अब नीतीश कुमार पर भारी पड़ने लगे हैं. बिहार के बड़े-बूढ़े और बच्चे भी किसी न किसी रूप में तेजस्वी को जान गए हैं. कोई जंगल राज के प्रणेता माने गए लालू-राबड़ी की संतान के रूप में उन्हें जानता है तो कुछ उन्हें जाति सर्वेक्षण और बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरी दिलाने वाले के रूप में याद करते हैं. हाल में सी वोटर का सर्वे बिहार के बाबत आया है. सर्वे में सीएम के लिए 41 प्रतिशत लोगों की पसंद तेजस्वी बताए गए हैं. वे नीतीश के लिए कितनी बड़ी चुनौती बन गए हैं, इसे समझने के लिए इस आंकड़े पर भी गौर करें. बिहार में सीएम पद के लिए नीतीश कुमार 18 प्रतिशत लोगों की ही पसंद रह गए हैं. सबसे आश्चर्य की बात है कि बहुत-से लोग भाजपा की अगली बार सरकार बनने का सपना देख रहे हैं. लेकिन आश्चर्य की बात है कि तेजस्वी के मुकाबले भाजपा के पास कोई चेहरा ही नहीं दिखता. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके डेप्युटी सीएम सम्राट चौधरी को सिर्फ 8 प्रतिशत लोग सीएम पद के लायक समझते हैं. राम विलास पासवान के पुत्र और लोजपा-आर के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान भी बिहार की राजनीति में उतरने को बेताब रहे हैं. उन्हें तो सिर्फ 4 प्रतिशत लोग ही सीएम के योग्य मान रहे हैं. यानी सर्वे को ही आधार माना जाए तो फिलवक्त तेजस्वी के मुकाबले एनडीए में कोई नेता नहीं दिखता, जो उनके बरक्स खड़ा हो सके.
नीतीश के पीछे-पीछे चल रहे PK
सी वोटर के सर्वेक्षण में प्रशांत किशोर के बारे में भी चौंकाने वाले ही आंकड़े आए हैं. बिहार के 18 प्रतिशत लोग अगर नीतीश को सीएम देखना चाहते हैं तो प्रशांत किशोर के चहेते 15 प्रतिशत दिखे हैं. प्रशांत किशोर कभी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के ही साथ थे. नीतीश ने उन्हें किनारे किया तो उन्होंने अपनी पार्टी जन सुराज बना ली. महज चार महीने पहले 2 अक्टूबर 2024 को प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी जन सुराज की लांचिंग की. डेढ़ महीने बाद ही उनकी पार्टी ने चार सीटों पर विधानसभा का उपचुनाव लड़ा. तकरीबन 10 फीसदी वोटों की हिस्सेदारी उनकी उपचुनाव में रही. तिरहुत क्षेत्र से विधान परिषद उपचुनाव में भी जन सुराज ने किस्मत आजमाई. उसका उम्मीदवार तो नहीं जीता, लेकिन एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को हराने में उसने बड़ी भूमिका निभाई.
March 02, 2025, 10:16 IST
