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घुघुतिया त्यार की फीकी पड़ती चमक, बच्चे भूल गए कौवों को बुलाना

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Ghughutiya Festival: किसी समय पर पहाड़ के हर बच्चे को उत्तरायणी के अगले दिन की सुबह का बेसब्री से इंतजार रहता था. बच्चे इंतजार करते थे सुबह का क्योंकि यह वो वक्त होता था, जब वे इस खास त्योहार की सबसे विशेष रस्म को निभाते…और पढ़ें

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घुघुतिया

घुघुतिया त्यार की चमक फीकी पड़ती जा रही है.

अल्मोड़ा. उत्तराखंड के लोकपर्व घुघुतिया त्योहार को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. मकर संक्रांति के दिन लोग अलग-अलग पकवान तैयार करते हैं. इनमें सबसे खास होते हैं घुघुते या घुघुती. यह एक तरह का मीठा पकवान है. घुघुते अलग-अलग शेप जैसे- तलवार, जलेबी, डमरू, फूल आदि जैसे बनाए जाते हैं. संतरों या माल्टों के साथ घुघुते की माला बनाई जाती है. मकर संक्रांति के अगले दिन सुबह बच्चों को यह माला पहनाई जाती है और फिर बच्चे छतों या आंगन में जाकर घुघुती खिलाने के लिए कौवों को जोर-जोर से आवाज देकर बुलाते हुए कहते हैं, ‘काले कौवे काले, घुघुती माला खा ले.’ बदलते समय के साथ अब यह पारंपरिक रस्म खत्म होते हुए नजर आ रही है.

किसी समय पर पहाड़ के हर बच्चे को उत्तरायणी के अगले दिन की सुबह का बेसब्री से इंतजार रहता था. बच्चे इंतजार करते थे सुबह का क्योंकि यह वो वक्त होता था, जब वे इस खास त्योहार की सबसे विशेष रस्म को निभाते थे. मोबाइल फोन और ऑनलाइन गेमिंग के इस दौर में अब बच्चों की इस रवायत में कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती. अल्मोड़ा के वरिष्ठ रंगकर्मी त्रिभुवन गिरी महाराज ने लोकल 18 से बातचीत में कहा कि घुघुतिया त्यार पर कौवों को बुलाने की प्रथा धीरे-धीरे खत्म होते नजर आ रही है. पहले बच्चे बर्तन में घुघुते और घुघुती की माला पहनकर छत या आंगन में जाया करते थे, जिसके बाद वे कौवों को बुलाकर घुघुते खिलाते थे. आज के समय में बच्चे इन सभी चीजों को अच्छा नहीं मानते हैं, जिस वजह से वे इस परंपरा को भूलते जा रहे हैं.

सच होती अंग्रेज की बात
उन्होंने कहा कि जब अंग्रेज यहां राज करते थे, तो किसी अंग्रेज ने कहा था कि ये सभी चीजें बेवकूफ लोगों की चीजें हैं, जो आज धीरे-धीरे साबित होता हुआ नजर आ रहा है. पहले के समय में बच्चों में हर त्योहार के लिए काफी उत्साह और उमंग देखने को मिलता था, जो अब आधुनिकता की चकाचौंध में धुंधला पड़ गया है. त्रिभुवन गिरी महाराज ने आगे कहा कि आजकल के बच्चों को यह नहीं पता कि घुघुती त्योहार के बाद कौवों को बुलाया जाता है. पहले बच्चे घुघुती की माला के लिए एक-दूसरे से लड़ा करते थे कि उसकी माला बड़ी और मेरी माला छोटी है. आज के बच्चों को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है. उनका कहना है कि वर्तमान में माता-पिता भी अपने बच्चों को अपनी परंपराओं के बारे में नहीं बताते हैं. अगर ऐसा ही रहा तो हमारी रस्में और परंपराएं इतिहास बन जाएंगी और आने वाली पीढ़ी इनसे अछूती रह जाएगी.

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