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क्यों लंबी नहीं चलतीं आंदोलनों से निकली पार्टियां, ‘आप’ भी एजीपी की राह पर

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AAP And Assam Gana Parishad: दिल्ली चुनाव में हार के बाद आम आदमी पार्टी की स्थिति असम गण परिषद जैसी हो सकती है. आंतरिक मतभेद और भ्रष्टाचार के आरोपों से पार्टी की पकड़ अपने मतदाताओं पर कमजोर हो रही है.

क्यों लंबी नहीं चलतीं आंदोलनों से निकली पार्टियां, ‘आप’ भी एजीपी की राह पर

आम आदमी पार्टी और असम गण परिषद की राजनीतिक यात्राएं एक जैसी रही हैं.

हाइलाइट्स

  • बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी को दी करारी हार
  • आंतरिक मतभेद और भ्रष्टाचार के आरोपों से आप कमजोर हो रही है
  • तीन बार सरकार के बाद आप का भविष्य एजीपी जैसा हो सकता है

AAP also faces the same fate as Assam Gana Parishad: दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद आम आदमी पार्टी (आप) को लेकर काफी कयास लगाए जा रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 48 सीटें जीतकर 27 सालों बाद दिल्ली की सत्ता में वापसी कर ली है. जबकि आम आदमी पार्टी को केवल 22 सीटों पर संतोष करना पड़ा. आम आदमी पार्टी के दिग्गज नेता जैसे पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, मंत्री सौरभ भारद्वाज और सोमनाथ भारती चुनावी अखाड़े में चित हो गए. जानकारों का मानना है कि इस हार के बाद पार्टी में आंतरिक मतभेद गहराने लगेंगे. यानी आम आदमी पार्टी जिस भाग्य की ओर बढ़ रही है, वह 40 साल पहले असम में गठित असम गण परिषद (एजीपी) के राजनीतिक हाशिए पर चले जाने की यादें ताजा कर देती हैं. क्या आम आदमी पार्टी भी उसी राह पर जा रही है?

कैसे बनी असम गण परिषद
असम गण परिषद यानी एजीपी का जन्म असम समझौते (1985) से हुआ. ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के साथ इस समझौते ने असम आंदोलन को समाप्त कर दिया था. ये आंदोलन बांग्लादेशियों के अवैध इमीग्रेशन के कारण राज्य के सामाजिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव से बचने के लिए चलाया गया था. दिसंबर 1985 में हुए असम विधानसभा चुनाव में एजीपी ने 126 में से 67 सीटें जीत लीं और सत्ता में आ गई. हालांकि असम में दो बार शासन करने के बाद भी बार-बार आंतरिक विभाजन के कारण पार्टी की पकड़ कमजोर होती चली गई. साल 2000 के आस-पास उनकी लोकप्रियता में काफी गिरावट आ गई. लेकिन एजीपी ने 20 साल के अंतराल के बाद एनडीए के साथ गठबंधन कर 2024 में एक लोकसभा सीट (बारापेटा) जीती.   

आंदोलन के समय प्रफुल्ल कुमार महंत.

आंदोलन के समय प्रफुल्ल कुमार महंत.

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अन्ना आंदोलन का परिणाम है आप
जहां असम गण परिषद विदेशी विरोधी आंदोलन का परिणाम है, वही आप 2011-2012 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाए गए इंडिया अंगेस्ट करप्शन आंदोलन का परिणाम है. इसके अलावा एजीपी और आप में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही. इन दोनों पार्टियों के युवा नेता प्रफुल्ल महंत और अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री चुने गए. इसके अलावा दोनों पार्टियों मे अपने पहले कार्यकाल के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों और जिन लोगों ने पार्टियों को बनाने में योगदान दिया उनके हटने या कहें कि आंतरिक कलह के कारण अपनी विश्वसनीयता खो दी थी.

अन्ना आंदोलन में अरविंद केजरीवाल.

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कैसे खो दी अपनी राजनीतिक जमीन
प्रफुल्ल महंत को अपने दूसरे कार्यकाल के कुछ समय बाद ही अचानक झटका लगा, जब कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई. जबकि वह राज्य के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने थे और उनके साथ जनता का अपार समर्थन था. लेकिन प्रफुल्ल महंत को एक अक्षम नेता करार दिया गया और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. कुछ ऐसा ही हाल अरविंद केजरीवाल का हुआ. 2020 में उनको विधानसभा चुनाव में दूसरी बार अपार सफलता मिली थी. आप ने 70 में से 62 सीटें अपने नाम कर ली थीं. लेकिन शराब (आबकारी) नीति में घोटाले के आरोप लगने के बाद केजरीवाल उससे उबरने में असफल रहे. पहले उनके डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को जेल हुई और बाद में उन्हें भी तिहाड़ की हवा खानी पड़ी. इससे केजरीवाल बीजेपी के हाथों अपनी जमीन खोते चले गए.

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कैसे एजीपी की राह पर बढ़ती रही आप
असम गण परिषद का भी पतन तब शुरू हुआ जब इसके शीर्ष नेताओं प्रफुल्ल महंत और भृगु कुमार फूकन के बीच बढ़ते मतभेदों के कारण इसमें विभाजन हो गया. इसके अलावा दोनों ही मामलों में पार्टी का पतन हुआ है और इसके नेताओं की छवि खराब हुई है. प्रफुल्ल महंत और अरविंद केजरीवाल दोनों पर जनांदोलनों को व्यक्ति पूजा में बदलने का आरोप लगाया जा रहा है. इन दोनों पार्टियों को खड़ा करने में जिन नेताओं ने योगदान दिया था वे कांग्रेस और बीजेपी सहित अन्य दलों में चले गए. अरविंद केजरीवाल का कपिल मिश्रा और कुमार विश्वास के साथ मतभेद किसी से दबा ढका नहीं रहा था. कपिल मिश्रा ने केजरीवाल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और पार्टी छोड़ दी थी. वहीं, कुमार विश्वास ने लोकसभा चुनाव में हार के लिए केजरीवाल को जिम्मेदार ठहराया तो दोनों के बीच ठन गई. इसके अलावा केजरीवाल की प्रधानमंत्री और दिल्ली के उपराज्यपाल के साथ लगाचार चलती रही असहमति ने भी पार्टी की लोकप्रियता को झटका दिया.   

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क्या होगा आम आदमी पार्टी का?
आम आदमी पार्टी और असम गण परिषद की राजनीतिक यात्राएं एक जैसी रही हैं. अगर अरविंद केजरीवाल दिल्ली की हार से उबरने और पार्टी को भ्रष्टाचार के आरोपों से बाहर निकालने में विफल रहे तो आम आदमी पार्टी का भी भी यही हश्र होने का आशंका है. जब तक राजनीतिक परिस्थितियों में भारी बदलाव नहीं आता आम आदमी पार्टी का अपना मतदाता आधार पुन: हासिल करना आसान नहीं होगा. हालांकि आम आदमी पार्टी के पास ये विकल्प है कि वो असम गण परिषद की तरह गठबंधन में भाग लेकर फल-फूल सके. क्योंकि हरियाणा में कांग्रेस के बहुमत से दूर रह जाने और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीजेपी के हाथों सत्ता गंवा देने के पीछे उसका गठबंधन ना करना भी एक बड़ी वजह मानी जा रही है.

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